Sunday, May 20, 2018

ଗୋପବନ୍ଧୁ ଚୌଧୁରୀ



ଓଡ଼ିଶାର ଜଣେ ବିଶିଷ୍ଟ ସ୍ୱାଧୀନତା ସଂଗ୍ରାମୀ ଓ ଗାନ୍ଧିବାଦୀ ନେତା ଭାବେ ଗୋପବନ୍ଧୁ ଚୌଧୁରୀ ପରିଚିତ ବ୍ୟକ୍ତିତ୍ୱ । ସେ କଟକରେ ୮ମଇ ୧୮୯୫ ମସିହାରେ ଜନ୍ମ ଗ୍ରହଣ କରିଥିଲେ । ଗୋପବନ୍ଧୁ ଯେଉଁଘରେ ଜନ୍ମ ଗ୍ରହଣ କରିଥିଲେ, ସେ ଘର ପରବର୍ତ୍ତୀ ସମୟରେ ସ୍ୱରାଜ ଆଶ୍ରମରେ ପରିଣତ ହୋଇଥିଲା । କଲିକତାରେ ସେ ଆଇନ ପରୀକ୍ଷାରେ ପ୍ରଥମ ସ୍ଥାନ ଅଧିକାର କରି ୧୯୧୭ ମସିହାରେ କଟକର ଡେପୁଟି ମାଜିଷ୍ଟ୍ରେଟ ରୂପେ ଅବସ୍ଥାପିତ ହୋଇଥିଲେ । ୧୯୨୦ ମସିହାରେ ଭୀଷଣ ନଈବଢ଼ି ସମୟରେ ଗୋପବନ୍ଧୁ ବନ୍ୟ ପ୍ରପୀଡ଼ିତ ଅଞ୍ଚଳରେ ସରକାରଙ୍କୁ ଅଧିକ ସାହାଯ୍ୟ କରିବା ପାଇଁ ଦାବି ଜଣାଇଥିଲେ । ବ୍ରିଟିଶ ସରକାର ତାଙ୍କର ଦାବି ଅଗ୍ରାହ୍ୟ କରିଦେବାରୁ ସେ ସରକାରୀ ଚାକିରୀରୁ ଇସ୍ତଫା ପ୍ରଦାନ କରିଥିଲେ । ତାପରେ ସେ ସତ୍ୟବାଦୀ ଯାଇ ଗୋପବନ୍ଧୁଙ୍କ ଶିଷ୍ୟତ୍ୱ ଗ୍ରହଣ କରିଥିଲେ । କଂଗ୍ରେସରେ ଯୋଗଦାନ, ଗାନ୍ଧିନୀତି ଅନୁସରଣ, ଖଦଡ଼ ଲୁଗା ପିନ୍ଧିବା, ଆଶ୍ରମ ଓ ଦରିଦ୍ର ନାରାୟଣଙ୍କ ସେବା ଆଦି କାର୍ଯ୍ୟରେ ନିଜକୁ ନିୟୋଜିତ କରିଥିଲେ । ୧୯୨୧ ମସିହାରେ ଅଳକା ନଦୀ କୂଳରେ ପ୍ରଥମେ ଏକ ଶିକ୍ଷାନୁଷ୍ଠାନ ଓ ପରେ ଅଳକାଶ୍ରମ ପ୍ରତିଷ୍ଠା କରିଥିଲେ । ୧୯୩୪ ମସିହାରେ ଗାନ୍ଧିଜୀଙ୍କ ନିର୍ଦ୍ଦେଶରେ ସେ ବରୀକୁ ନିଜର କର୍ମକ୍ଷେତ୍ର ରୂପେ ବାଛି ଗ୍ରାମ ସଫେଇ, ନିଶା ନିବାରଣ, ପୌଢ଼ଶିକ୍ଷା, ହରିଜନ ସେବା, ମୌଳିକ ଶିକ୍ଷା ସହ ଗ୍ରାମ ଅର୍ଥନୀତିର ଉନ୍ନତି ପାଇଁ ଉଦ୍ୟମ କରିଥିଲେ । ସ୍ୱାଧୀନତା ଆନ୍ଦୋଳନର ବିଭିନ୍ନ ପର୍ଯ୍ୟାୟ ଲବଣ ସତ୍ୟାଗ୍ରହ, ଅଗଷ୍ଟ ବିପ୍ଳବ ଓ ଭାରତ ଛାଡ଼ ଆନ୍ଦୋଳନରେ ସାମିଲ ହୋଇ କାରାବରଣ କରିଥିଲେ । ୧୯୩୦ରେ ଇଞ୍ଚୁଡି ଲବଣ ସତ୍ୟାଗ୍ରହ ଓ ୧୯୪୨ରେ ଭାରତଛାଡ଼ ଆନ୍ଦୋଳନ ସତ୍ୟାଗ୍ରହ ବେଳେ ସେ ପୁଲିସ ଲାଠିଚାଳନାରେ ଆହାତ ହୋଇ କଟକ ଡାକ୍ତରଖାନାରେ ଚିକିତ୍ସିତ ହୋଇଥିଲେ । ସ୍ୱାଧୀନତା ପରେ ସେ ସନ୍ଥ ବିନୋବା ଭାବେଙ୍କ ଆଦର୍ଶରେ ଅନୁପ୍ରାଣିତ ହୋଇ ଭୂଦାନ ଆନ୍ଦୋଳନରେ ସାମିଲ ହୋଇଥିଲେ । ସେ ସମୟରେ ସମାଜ ସଂସ୍କାର ଅଭିମୁଖୀ ଓ ଆଧ୍ୟାତ୍ମିକ ଜ୍ଞାନସମ୍ପନ୍ନ ଭିତ୍ତିକ ଲେଖା ଲେଖୁଥିଲେ । ସରଳ ଜୀବନ ଓ ବନ୍ଧୁବତ୍ସଳତା ଥିଲା ତାଙ୍କର ଅନ୍ୟତମ ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଗୁଣ । ଗୋପବନ୍ଧୁ ଚୌଧୁରୀଙ୍କ ଶେଷ ଜୀବନ କଟିଥିଲା କଟକର ଥୋରିଆ ସାହିରେ ଥିବା ଭୂଦାନ ଆଶ୍ରମରେ । ୨୯ ଅପ୍ରେଲ ୧୯୫୮ ମସିହାରେ ସେ ମୃତ୍ୟୁ ବରଣ କରିଥିଲେ ।

Saturday, May 19, 2018

क्रांतिकारी राजगुरु


(१९०८ – २३ मार्च १९३१)

कारागृह में असीम छल होते हुए भी राजगुरु ने सहयोगियों के नाम नहीं बताए ।

एक धोखा के कारण राजगुरु पकडे गए । लाहौर में उनके साथ असीम छल किया गया । लाहौर की प्रखर धूप में चारों ओर से भट्ठियां लगा कर राजगुरु को उन के मध्य को बिठाया गया । मारपीट की गई । हिम की शिला पर उन्हें सुलाया गया । उनकी इंद्रियों को मरोडा गया । उन्हें इन बातों से प्रभावित न होते देख उनके सिर पर तसले से विष्ठा डाली गई । दृढ राजगुरु ने यह सब छल सहन किया; परंतु सहयोगियों के नाम नहीं बताए ।

हिन्दू एवं मुसलमानों के संदर्भ में अिंहसा के पृथक पृथक निकष लगानेवाले ढोंगी गांधीजी !

जैसे ही तीनों वीरों को फांसी का दंड सुनाया गया, पूरे देश से तीव्र प्रतिक्रियाएं आने लगीं । निषेधपत्र जाने लगे । बाबाराव सावरकर (स्वा. सावरकर बंधु) अपना व्यक्तिगत क्रोध भूल कर वर्धा में दि.१५.२.१९३१ को गांधीजी से मिले । उन्होंने कहा कि गांधी-इरविन भेंट में गांधीजी को राजबंदियों को मुक्त करने की मांग करनी चाहिए एवं राजबंदियों में अत्याचारी एवं अनत्याचारी ऐसा अंतर न हो  । इस पर गांधीजी ने कहा कि सामने वाला जितना देगा, उतना ही मांगना चाहिए । इस पर बाबाराव ने तत्परता से उत्तर दिया कि यदि ऐसा है, तो स्वराज की मांग निरुपयोगी है; क्योंकि अंग्रेज तो स्वराज देंगे नहीं । इस पर गांधीजी ने कहा कि अत्याचारों को छोडो, ऐसा कहना हीनता का लक्षण है । मैं अहिंसा के आदर्श के विरुद्ध कैसे जाऊं । यह सुनते ही बाबाराव ने उत्तर दिया कि यदि ऐसा है, तो स्वामी श्रद्धानंद की हत्या करेनवाले अब्दुल रशीद को क्षमा करें, क्या ऐसा कहना आपकी हीनता नहीं थी ? वैसी ही हीनता इन राजबंदियों के लिए दिखाएं । यह सुनकर गांधीजी ‘अभी आया’ कहकर उठे एवं वहां से चले गए ।

स्वतंत्रताप्राप्ति का सर्वोच्च ध्येय रख आनंद से मृत्यु को गले लगानेवाले क्रांतिकारी !

फांसी देने से पूर्व एक सहयोगी ने भगतिंसह से पूछा, ‘सरदारजी, फांसी जा रहे हो । कोई अफसोस तो नहीं ? ‘ इस पर ठहाका लगाते हुए हंसकर भगतिंसह ने कहा कि अरे, इस मार्ग पर प्रथम कदम रखते समय इतना ही विचार किया था कि ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ घोषणा सर्वत्र पहुंचे । मेरे करोडों देशबंधुओं के कंठ से जब यह घोषणा निकलेगी, तो यह घोष इस साम्राज्य पर आघात करता रहेगा । इस छोटे से जीवन का इस से बडा मूल्य क्या होगा ? राजगुरु ने कहा, कि फांसी लगते ही हमारी यात्रा तो एक क्षण में समाप्त होगी; परंतु आप सभी विविध शिक्षाओं की यात्रा के लिए निकले हैं । आप की यात्रा कठोरता से अनेक वर्षों तक चालू रहेगी, इसका दुःख लगता है ।

भगतिंसह, राजगुरु एवं सुखदेव की फांसी से पूर्व उनके अंतिम क्षण में उनके सहयोगियों द्वारा ली गई भेंट !

भगतिंसह, राजगुरु एवं सुखदेव इन प्रखर(जहाल) क्रांतिकारियों को मृत्यु दंड दिया गया । इस समय उनके साथ षडयंत्र में सम्मिलित शिवकर्मा, जयदेव कपूर एवं अन्य सहयोगियों को आजीवन कारावास का दंड सुनाया गया । इन लोगों को दंड भुगतने हेतु अन्य कारागृह में ले जानेवाले  थे । उस समय कारागृह के वरिष्ठ अधिकारियों ने उन्हें भगतिंसह, राजगुरु एवं सुखदेव से अंतिम क्षण में भेंट करने की अनुमति दी ।
इस भेंट में जयदेव कपूर ने भगतिंसह को पूछा कि आप की फांसी निश्चित हो गई है । ऐसी स्थिति में ठीक युवा अवस्था में मृत्यु का सामना करते समय क्या आपको बुरा नहीं लगता ? उस समय भगतिंसह ने हंस कर कहा कि अरे ! मेरे प्राणों के बदले में ‘इन्कलाब जिंंदाबाद’  घोषणा हिन्दुस्थान के कोने-कोने में पहुंचाने में मैं सफल हो गया हूं । और यही मेरे प्राणों का मूल्य है, मैं ऐसा समझता हूं । आज सलाखों के पीछे से मेरे लाखों बंधुओं के मुख से मैं यही घोषणा सुन रहा हूं । इतनी छोटी आयु में इससे अधिक मूल्य क्या हो सकता है ? उनकी तेजस्वी वाणी सुनकर सभी की आंखों में आंसू भर आए । उन्होंने किसी तरह अपना रोना रोक कर अपने को नियंत्रित किया । उनकी अवस्था देखकर भगतिंसह ने कहा कि मित्रो, यह भावनाशील होने का समय नहीं है । मेरी यात्रा तो समाप्त ही हो गई है । परंतु आपको अभी बहुत दूर तक यात्रा करनी है । मुझे निश्चिति है कि आप थकेंगे नहीं, हार मानेंगे नहीं एवं थक कर बैठेंगे भी नहीं ।
इन शब्दों से उनके सहयोगी और भी उत्साहित हुए । उन्होंने भगतिंसह को आश्वासन दिया कि देश की स्वतंत्रता के लिए हम अंतिम श्वास तक  लडते रहेंगे एवं वह भेंट समाप्त हुई । तदुपरांत भगतिंसह, राजगुरु एवं सुखदेव के बलिदान से हिन्दुस्थान वासियों के मन में देशभक्ति की ज्योत अधिक तीव्रता से धधकने लगी ।

राजगुरु के बाडे की देखभाल के लिए सम्मत पैसों में भी भ्रष्टाचार करनेवाला शासन !

जिस खोली में शिवराम हरी राजगुरु का जन्म हुआ, वह खपरैल (टाईल)की झोंपडी भग्नावस्था में थी । इस जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में शासन ने उसकी देखभाल कर पुनर्निर्माण किया । एक कक्ष के निर्माण कार्य के लिए पूरे पौने सात लाख रुपए लगे । किसे पता कि शासन की योजना पैसा बचाएं, पैसे का अवशोषण करें ऐसी है ! क्यों कि राजगुरुवाडा की देखभाल के लिए दो कोटि रुपए सम्मत हुए हैं । उन पैसों का उपयोग कैसे होगा, उसकी यह झलक है ।

चलचित्र में राजगुरु समान क्रांतिवीर को अयोग्य पद्धति से बताए जाने पर भी मौन रहनेवाला अस्मिताहीन मराठी मनुष्य !

महाराष्ट्र में अन्यत्र घूमते हुए भी ऐसा ही अनुभव हुआ । एक स्थान पर ‘भगतिंसह, सुखदेव एवं राजगुरु,’ इस विषय पर मेरा व्याख्यान हुआ । व्याख्यान होने पर लगभग ४० की आयु के एक सज्जन मेरे पास आकर कहने लगे कि आपके व्याख्यान से मुझे समझ में आया कि ये तीन मनुष्य थे । मैं अब तक ऐसा ही समझता था कि यह केवल एक व्यक्ति का नाम है । इस पर मैं क्या भाष्य करूं ? ऐसी स्थिति में अजय देवगण के ‘लिजेंड ऑफ भगतिंसह’ में राजगुरु को विनोदी दर्शाया गया है । राजगुरु उतावले थे; परंतु घटिया एवं अनाडी नहीं थे । यदि मराठी मनुष्य का अनादर किया तो भी वह मौन रहता है, यह हिन्दी चलचित्र सृष्टि को ज्ञात है, इसलिए ऐसा दुस्साहस किया जाता है ।
(साप्ताहिक जय हनुमान, १३.२.२०१०)
महाराष्ट्र में क्रांतिकारी राजगुरु की उपेक्षा; परंतु पंजाब में राजगुरु कीr जन्मशताब्दी संपन्न हुई ।  – डॉ. सच्चिदानंद शेवडे (धर्मभास्कर, अक्तूबर २००८)

सेनापती तात्या टोपे : रणभूमि का एक आदर्श नेतृत्व !


हिंदुओ, सभी राजनितीक दल हमारे क्रांतिकारकोंको बड़ी चतुराई से भूल गये हैं, आप ऐसी कृतघ्नता, न करें !

ब्रिटिश सेना की नाक में दम करनेवाले, ‘दुसरे शिवाजी’ सेनापती तात्या टोपे !

यदि वर्ष १८५७ के स्वातंत्र्य संग्राम का सार जानने की इच्छा है, तो हमें तात्या टोपे के चरित्र के एक पक्ष को सूक्ष्म दृष्टि से देखना चाहिए।
इस स्वातंत्र्य संग्राम में पराजित होने के पश्चात अगले १० माह तक तात्या टोपे ने वृकयुद्ध पद्धति अर्थात कूटनीति से चकमा दे कर एवं एकाएक आक्रमण कर ब्रिटिश सेना की नाक में दम कर रखा था। कुछ अवसर पर वे शत्रु की दृष्टि में आते थे तो, उनकी सेना में भगदड मच जाती थी, तो तात्या वहां से खिसक कर अन्य स्थान पर जाकर नई सेना स्थापित करते थे। जब भी तात्या चाहते थे, वे नई सेना खडी कर लेते थे, इसका अर्थ यह कि, लोगों में ब्रिटिशोंके विरोध में इतना असंतोष व्याप्त था एवं उन्हें मुक्त होने की इतनी लगन थी कि, मारते मारते मृत्यु को स्वीकारनेवाले देश प्रेमी उन्हें सरलता से उपलब्ध होते थे।
यह भी उतना ही सच है कि, तात्या के शौर्य पर लोगोंका दृढ विश्वास था।
लोग जानते थे कि तात्या टोपे अंत तक अथक रूप से शक्ति एवं युक्ति से लडाई करते रहेंगे !
– श्री. अरविंद विठ्ठल कुळकर्णी, ज्येष्ठ पत्रकार, मुंबई

अनंत काल तक अपराजित रह चुके, तात्या टोपे !

तात्या टोपे ‘क्षण’ के पराजित एवं ‘अनंत काल’ के अपराजित थे ! वे तब के ‘विद्रोही’ एवं वर्तमान के ‘स्वातंत्र्यवीर’ थे !
वे उस ‘समय’ के अपराधी; परंतु ‘आज’ के अधिदेव थे ! सत्ताधारी अंग्रेजोंका पराजय एवं सेनापति तात्या की विजय हुई थी। आज पूर्णांश से नहीं, अपितु बहुअंश से तात्या टोपे का सपना साकार हो गया था !
– श्री. पु.भा. भावे (मासिक स्वातंत्र्यवीर, दीपावली अंक २००६, पृष्ठ ७०)

‘विजेता’ एवं ‘अवतारी’ तात्या टोपे !

सेनापति तात्याराव सावरकर तात्या टोपे की आत्मा को आवाहन कर प्रार्थना कर रहे थे कि, यदि आप अब तक भी इस अवकाश में कहीं अस्वस्थ हों, तो शांत होइए, शांत होइए ! आप पराजित नहीं, विजयी हो ! ‘अपराधी’ नहीं, अपितु ‘अवतारी’ हो !
– पु.भा. भावे (स्वातंत्र्यवीर, दीपावली विशेषांक २००८)

‘दुसरे शिवाजी’ ऐसा परिचय देनेवाले १८५७ के स्वातंत्र्य संग्राम के सेनापति तात्या टोपे !

यदि १८५७ के युद्ध में तात्या टोपे एकमात्र सेनापति होते एवं एक निश्चित दिन ‘विद्रोह’ किया होता, तो १५० वर्षपूर्व ही भारत स्वतंत्र हो गया होता !
‘लंदन टाईम्स’ समान शत्रुराष्ट्र के समाचारपत्र ने भी तात्या की चतुराई एवं कल्पकता की प्रशंसा की थी। उस समय ब्रिटिश समाचारपत्र ‘प्रति शिवाजी’ के रूप में उनका नामोल्लेख कर रहे थे !
– डॉ. सच्चिदानंद शेवडे, डोंबिवली (‘पढें एवं चूप रहें’ दैनिक तरुण भारत, बेलगांव आवृत्ति, २९.६.२००८)

१८५७ के स्वातंत्र्य संग्राम के भारतीयोंके सरसेनापति तात्या टोपे की पुण्यतिथि न मनानेवाली, नासिक महानगरपालिका !

वर्ष १८५७ के प्रथम भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम के सेनापति तात्या टोपे की पुण्यतिथि नासिक जिले में उनके येवला जन्मगांव में २३ अप्रैल २०१० को राष्ट्रभक्तोंने बड़े उत्साह के साथ मनाई; परंतु नासिक मनगरपालिका को तात्या टोपे की पुण्यतिथि का विस्मरण हो गया था !
भारतीय विद्यार्थी सेनाद्वारा पूर्व सूचना देने पर भी महानगरपालिका ने तात्या टोपे की प्रतिमा को उचित सम्मान अथवा उनका पूजन, ऐसा कुछ भी नहीं किया !