Saturday, May 19, 2018

क्रांतिकारी राजगुरु


(१९०८ – २३ मार्च १९३१)

कारागृह में असीम छल होते हुए भी राजगुरु ने सहयोगियों के नाम नहीं बताए ।

एक धोखा के कारण राजगुरु पकडे गए । लाहौर में उनके साथ असीम छल किया गया । लाहौर की प्रखर धूप में चारों ओर से भट्ठियां लगा कर राजगुरु को उन के मध्य को बिठाया गया । मारपीट की गई । हिम की शिला पर उन्हें सुलाया गया । उनकी इंद्रियों को मरोडा गया । उन्हें इन बातों से प्रभावित न होते देख उनके सिर पर तसले से विष्ठा डाली गई । दृढ राजगुरु ने यह सब छल सहन किया; परंतु सहयोगियों के नाम नहीं बताए ।

हिन्दू एवं मुसलमानों के संदर्भ में अिंहसा के पृथक पृथक निकष लगानेवाले ढोंगी गांधीजी !

जैसे ही तीनों वीरों को फांसी का दंड सुनाया गया, पूरे देश से तीव्र प्रतिक्रियाएं आने लगीं । निषेधपत्र जाने लगे । बाबाराव सावरकर (स्वा. सावरकर बंधु) अपना व्यक्तिगत क्रोध भूल कर वर्धा में दि.१५.२.१९३१ को गांधीजी से मिले । उन्होंने कहा कि गांधी-इरविन भेंट में गांधीजी को राजबंदियों को मुक्त करने की मांग करनी चाहिए एवं राजबंदियों में अत्याचारी एवं अनत्याचारी ऐसा अंतर न हो  । इस पर गांधीजी ने कहा कि सामने वाला जितना देगा, उतना ही मांगना चाहिए । इस पर बाबाराव ने तत्परता से उत्तर दिया कि यदि ऐसा है, तो स्वराज की मांग निरुपयोगी है; क्योंकि अंग्रेज तो स्वराज देंगे नहीं । इस पर गांधीजी ने कहा कि अत्याचारों को छोडो, ऐसा कहना हीनता का लक्षण है । मैं अहिंसा के आदर्श के विरुद्ध कैसे जाऊं । यह सुनते ही बाबाराव ने उत्तर दिया कि यदि ऐसा है, तो स्वामी श्रद्धानंद की हत्या करेनवाले अब्दुल रशीद को क्षमा करें, क्या ऐसा कहना आपकी हीनता नहीं थी ? वैसी ही हीनता इन राजबंदियों के लिए दिखाएं । यह सुनकर गांधीजी ‘अभी आया’ कहकर उठे एवं वहां से चले गए ।

स्वतंत्रताप्राप्ति का सर्वोच्च ध्येय रख आनंद से मृत्यु को गले लगानेवाले क्रांतिकारी !

फांसी देने से पूर्व एक सहयोगी ने भगतिंसह से पूछा, ‘सरदारजी, फांसी जा रहे हो । कोई अफसोस तो नहीं ? ‘ इस पर ठहाका लगाते हुए हंसकर भगतिंसह ने कहा कि अरे, इस मार्ग पर प्रथम कदम रखते समय इतना ही विचार किया था कि ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ घोषणा सर्वत्र पहुंचे । मेरे करोडों देशबंधुओं के कंठ से जब यह घोषणा निकलेगी, तो यह घोष इस साम्राज्य पर आघात करता रहेगा । इस छोटे से जीवन का इस से बडा मूल्य क्या होगा ? राजगुरु ने कहा, कि फांसी लगते ही हमारी यात्रा तो एक क्षण में समाप्त होगी; परंतु आप सभी विविध शिक्षाओं की यात्रा के लिए निकले हैं । आप की यात्रा कठोरता से अनेक वर्षों तक चालू रहेगी, इसका दुःख लगता है ।

भगतिंसह, राजगुरु एवं सुखदेव की फांसी से पूर्व उनके अंतिम क्षण में उनके सहयोगियों द्वारा ली गई भेंट !

भगतिंसह, राजगुरु एवं सुखदेव इन प्रखर(जहाल) क्रांतिकारियों को मृत्यु दंड दिया गया । इस समय उनके साथ षडयंत्र में सम्मिलित शिवकर्मा, जयदेव कपूर एवं अन्य सहयोगियों को आजीवन कारावास का दंड सुनाया गया । इन लोगों को दंड भुगतने हेतु अन्य कारागृह में ले जानेवाले  थे । उस समय कारागृह के वरिष्ठ अधिकारियों ने उन्हें भगतिंसह, राजगुरु एवं सुखदेव से अंतिम क्षण में भेंट करने की अनुमति दी ।
इस भेंट में जयदेव कपूर ने भगतिंसह को पूछा कि आप की फांसी निश्चित हो गई है । ऐसी स्थिति में ठीक युवा अवस्था में मृत्यु का सामना करते समय क्या आपको बुरा नहीं लगता ? उस समय भगतिंसह ने हंस कर कहा कि अरे ! मेरे प्राणों के बदले में ‘इन्कलाब जिंंदाबाद’  घोषणा हिन्दुस्थान के कोने-कोने में पहुंचाने में मैं सफल हो गया हूं । और यही मेरे प्राणों का मूल्य है, मैं ऐसा समझता हूं । आज सलाखों के पीछे से मेरे लाखों बंधुओं के मुख से मैं यही घोषणा सुन रहा हूं । इतनी छोटी आयु में इससे अधिक मूल्य क्या हो सकता है ? उनकी तेजस्वी वाणी सुनकर सभी की आंखों में आंसू भर आए । उन्होंने किसी तरह अपना रोना रोक कर अपने को नियंत्रित किया । उनकी अवस्था देखकर भगतिंसह ने कहा कि मित्रो, यह भावनाशील होने का समय नहीं है । मेरी यात्रा तो समाप्त ही हो गई है । परंतु आपको अभी बहुत दूर तक यात्रा करनी है । मुझे निश्चिति है कि आप थकेंगे नहीं, हार मानेंगे नहीं एवं थक कर बैठेंगे भी नहीं ।
इन शब्दों से उनके सहयोगी और भी उत्साहित हुए । उन्होंने भगतिंसह को आश्वासन दिया कि देश की स्वतंत्रता के लिए हम अंतिम श्वास तक  लडते रहेंगे एवं वह भेंट समाप्त हुई । तदुपरांत भगतिंसह, राजगुरु एवं सुखदेव के बलिदान से हिन्दुस्थान वासियों के मन में देशभक्ति की ज्योत अधिक तीव्रता से धधकने लगी ।

राजगुरु के बाडे की देखभाल के लिए सम्मत पैसों में भी भ्रष्टाचार करनेवाला शासन !

जिस खोली में शिवराम हरी राजगुरु का जन्म हुआ, वह खपरैल (टाईल)की झोंपडी भग्नावस्था में थी । इस जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में शासन ने उसकी देखभाल कर पुनर्निर्माण किया । एक कक्ष के निर्माण कार्य के लिए पूरे पौने सात लाख रुपए लगे । किसे पता कि शासन की योजना पैसा बचाएं, पैसे का अवशोषण करें ऐसी है ! क्यों कि राजगुरुवाडा की देखभाल के लिए दो कोटि रुपए सम्मत हुए हैं । उन पैसों का उपयोग कैसे होगा, उसकी यह झलक है ।

चलचित्र में राजगुरु समान क्रांतिवीर को अयोग्य पद्धति से बताए जाने पर भी मौन रहनेवाला अस्मिताहीन मराठी मनुष्य !

महाराष्ट्र में अन्यत्र घूमते हुए भी ऐसा ही अनुभव हुआ । एक स्थान पर ‘भगतिंसह, सुखदेव एवं राजगुरु,’ इस विषय पर मेरा व्याख्यान हुआ । व्याख्यान होने पर लगभग ४० की आयु के एक सज्जन मेरे पास आकर कहने लगे कि आपके व्याख्यान से मुझे समझ में आया कि ये तीन मनुष्य थे । मैं अब तक ऐसा ही समझता था कि यह केवल एक व्यक्ति का नाम है । इस पर मैं क्या भाष्य करूं ? ऐसी स्थिति में अजय देवगण के ‘लिजेंड ऑफ भगतिंसह’ में राजगुरु को विनोदी दर्शाया गया है । राजगुरु उतावले थे; परंतु घटिया एवं अनाडी नहीं थे । यदि मराठी मनुष्य का अनादर किया तो भी वह मौन रहता है, यह हिन्दी चलचित्र सृष्टि को ज्ञात है, इसलिए ऐसा दुस्साहस किया जाता है ।
(साप्ताहिक जय हनुमान, १३.२.२०१०)
महाराष्ट्र में क्रांतिकारी राजगुरु की उपेक्षा; परंतु पंजाब में राजगुरु कीr जन्मशताब्दी संपन्न हुई ।  – डॉ. सच्चिदानंद शेवडे (धर्मभास्कर, अक्तूबर २००८)

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